संपादकीय
इस संपादकीय मे हम कई बहादुर महिलाओं को याद करेंगे। दिल्ली को घेरे लाखों किसानों के बीच हजारों महिलाएं भी मौजूद हैं। वे केवल किसानो के परिवारों की नहीं हैं, वे खुद भी किसान हैं। कई तो अकेले ही अपने खेतों मे काम करती हैं और बहुत सारी अपने परिवारजन के साथ पूरी ताकत से हाथ बँटाती है। महिला किसान अधिकार मंच के अनुसार महिला किसान केवल 12ः खेतों की मालिक हैं लेकिन वे कृषि से संबन्धित काम का 75 % हिस्सा खुद करती हैं। मंच की कविता कुरुगंती का कहना है की चूंकि वे जमीन की मालिक नहीं हैं, इसलिए वे ‘अदृश्य’ रहती हैं।
एडवा की मांग रही है की महिला किसानों को भी किसान के रूप मे मान्यता दी जाये लेकिन सरकार इसको मानने के लिए तयार नहीं है। इसका नतीजा है कि न तो महिला किसानों के खातों मे सालाना 6000 रूपयों की राशि आती है, ना ही उन्हे किसानो को मिलने वाली कोई अन्य सुविधा प्राप्त होती है। कितनी बड़ी त्रासदी है की अगर कोई महिला किसान आत्म हत्या करती है तो उसके परिवार को सरकार की तरफ से मुआवजा नहीं मिलता है।
आज चल रहे किसान आंदोलन मे महिला किसान अदृश्य नहीं रहीं। वे दिल्ली की सड़कों पर कड़ाके की ठंड झेल रही हैं। वे गीत गा रही हैं। वे भाषण भी दे रही हैं। और वे एक ही बात कह रही हैं काले कानून वापस लो।
हरियाणा, मध्य प्रदेश और राजस्थान की हमारी एडवा की कार्यकर्ताओं ने भी आंदोलन मे अपनी भागीदारी दर्ज की है। उनकी रिपोर्टे भी इस न्यूजलेटर मे आप पढ़ेंगे दृ और वह आंदोलन मे शामिल किसान महिलाओं के तेवर से बहुत ही प्रभावित होकर अपने अनुभव बाँट रही हैं।
हजारों महिला किसान टेंट, ट्राली और खुले में सोती हैं। चारों तरफ लाखो अजनबी पुरुष किसान हैं लेकिन किसी तरह का न डर है न चिंता। यह दिखाता है की एक बड़ा आंदोलन लोगो की नीयत और फितरत को कितना प्रभावित करता है, जनवादी मुहिम का लोगों के जेहन पर कितना प्रभाव पड़ता है।
इस आंदोलन से और इसमे शिरकत करने वाली महिलाओं से हमे बहुत कुछ सीखने को मिल रहा है इसलिए हमे भी उनका संदेश चारों तरफ पहुंचाने के काम मे जुट जाना चाहिए।
इस संदर्भ मे हाल मे प्रकाशित 17 राज्यों और 5 केंद्र शाषित इलाकों की राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ सर्वे के 5वे राउंड के परिणाम, हमे बता रहे हैं की महिलाओं और बच्चों का कुपोषण देश के तमाम हिस्सों मे बढ़ा है। 22 मे से 13 राज्यों और कई इलाकों मे बच्चों का न बढ्ना (स्टांटिंग) बढा है। 22 मे से 12 मे उनका कुपोषण के कारण बर्बाद हो जाना (वेस्टिंग) बढ़ा है और 22 मे 16 मे उनका वजन कम होना बढ़ा है। इन परिस्थितियों मे हमारी मांग कि अधिक से अधिक लोगों को मुफ्त मे बढ़ाकर राशन उपलब्ध किया जाये, कितना जरूरी हो जाता है। साथ ही, किसानों का यह संघर्ष जो राशनिंग व्यवस्था को ही समाप्त होने से बचा रहा है, कितना महत्वपूर्ण है।
यहाँ बता दें, की केरला की वामपंथी सरकार ही है जिसने मुफ्त के राशन के साथ दाल, फल, सब्जी इत्यादि का पूरा पैकेट लाखो परिवारों को लगातार उपलब्ध कराने का काम किया है। इसके साथ ही तमाम पेंशनों की बढाई गयी राशि घरों मे लोगों को पहुंचाया गया है। इस तरह के जनहित के कार्यों के कारण, वाम जनवादी मोर्चा और खास तौर से सीपीआई(एम) की निकाय चुनावो मे भ्रामक प्रचार की सुनामी के बावजूद हुई। हमे इस जीत पर गर्व है क्योंकि हमारे संगठन के कार्यकर्ताओं के साथ तमाम महिलाओं, आंगनवाड़ी, कुटुम्बश्री इत्यादि ने इस जीत के लिए जबर्दस्त काम किया है और इसे सुनिश्चित करने के लिए पिछले पाँच सालों मे जनता की लगातार सेवा की है। हमे विशेष खुशी इस बात की है कि ये चुनाव परिणाम हमे बताते हैं कि अब स्थानीय निकाय और पंचायतों मे जन प्रतिनिधि 60 प्रतिशतः से अधिक महिलाएं हैं। यह देश का नया कीर्तिमान है।
न्यूजलेटर के इस अंक मे हम अपनी दो बहुत ही प्रिय नेताओं को याद कर रहे हैं जो एडवा की संस्थापक ही नहीं बल्कि देश के जनवादी आंदोलन और वाम दिशा के राष्ट्रीय नेता रही हैं। कामरेड सुशीला गोपालन जिनका देहांत 19 दिसंबर 1990 को हुआ था और कामरेड कनक मुखर्जी जिनका जन्म 30 दिसंबर को हुआ था। इस साल कनक दी की जन्म शताब्दी की शुरुआत इस दिन से हो गयी है।
कनक मुखर्जी एक अच्छी कवियत्री और लेखिका थी। वह हर समय अपनी एक नोट बुक मे कुछ न कुछ लिखती रहती थीं। उनके द्वारा लिखे गए एक लेख, जो आज बहुत ही प्रासंगिक मालूम पड़ता है, ‘दहेज प्रथा और लव मैरेज’ का कुछ हिस्सा आपके लिए पेश है:
‘बालिग जवान पुरुषों और महिलाओं मे अपने पसंद की शादी करने का चलन दहेज की कुप्रथा का सबसे प्रभावशाली इलाज होगा। अपने दिलों की गहराइयों से अगर शिक्षित नौजवान नवयुवतियाँ दहेज प्रथा का बहिष्कार करेंगे तो वे इसे (समाज के) जड़ से उखाड़ सकते हैं। इस कुरीति को समाप्त करने के लिए क्या एक नए दौर की रौशनी मे पलने वाले नौजवानों को इसके बारे मे समझाना परिवार के दकियानूसी, स्वार्थी सोच से प्रभावित बुजुर्गों को समझाने से बेहतर नहीं होगा? बुजुर्गों मे चेतना पैदा करने के काम को छोड़ नहीं देना है लेकिन जो नई पीढ़ी है, जो शादी करने की तैयारी कर रही है, उसकी जिम्मेदारी अधिक है।
लेकिन जिन दहेज-विरोधी सभाओं मे मैंने भाग लिया है उनमे अधिकतर परिवार के बुजुर्गों की राय को ही उजागर किया जाता है। हजारों की संख्या मे नवजवानों को आगे बढ़कर दहेज न लेने का वचन लेते हुये हमने कितनी ऐसी सभाओं मे देखा है? कितनी महिलाओं को यह कहते हुआ सुना है की वे पैसे के बदले विवाह के सौदे मे बेचे जाने से इंकार करती हैं ? हम इस तरह की निष्ठा कहाँ देखते हैं? निश्चित तौर पर बच्चों को पालने की जिम्मेदारी माँ-बाप की है लेकिन उनकी तमाम कमजोरियों के लिए वे ही जिम्मेदार नहीं हैं।
शादी के बारे मे सोचने वाले नौजवानों-नवयुवतियों से ही मेरी अपील है। माँ-बाप से हम जरूर मांग करेंगे की वे अपने बेटियों और बेटों को समान शिक्षा और समान अवसर प्रदान करें ताकि बराबरी का मौका मिले लेकिन हम नौजवानों और नवयुवतियों पर इस बात के लिए निर्भर हैं की वे पसंद की शादी की पहल करें ताकि दहेज के लेन देन के लिए जगह ही न बचे।
हमने महिलाओं और पुरुषों के समान अधिकारों की ओर कुछ प्रगति की है। कुछ सामाजिक बंधन भी लचीले हुए हैं। हम तो केवल उम्मीद ही कर सकते हैं कि बेहतर शिक्षा और चेतना संपन्न हमारे नौजवान हमारी प्राचीन, सड़ रही विवाह-व्यवस्था का समाधान निकालने मे आगे बढ़कर नेतृत्वकारी भूमिका अदा करेंगे। पसंद की शादी हमारे जीवन मे आजादी की खुशियाँ लाये! विवाहित जीवन और सम्बन्धों मे महिलाओं और पुरुषों के समान अधिकारों का मजबूत आधार बने! दहेज प्रथा के खिलाफ जारी हमारे संघर्ष का यही अंतिम लक्ष्य है।‘ : कनक मुखोपाध्याय (1960)
लेख के इस छोटे से अंश से ही पता चल जाता है कि 100 साल पहले जन्म लेने वाली कनक दी के विचार कितने उदार, प्रगतिशील और रूढ़ियों को तोड़ने वाले थे। उन्होने एडवा की स्थापना के पहले, बंगाल के महिला आंदोलन मे सक्रिय भूमिका अदा की थी। छोटी उम्र से ही वह गुलामी और जुल्म के खिलाफ लड़ने वाली यौद्धा थी और जीवन भर उन्होने यही भूमिका अदा की।
साल भर, उनकी याद मे विभिन्न कार्यक्रम होंगे और हम लगातार उनके बारे मे आपको जानकारी देते रहेंगे। 30 दिसंबर को एडवा के फेसबुक पेज पर बृंदा करात जी उनके बारे मे अपनी ने बात रखी जिसे आप नीचे दिए हुए लिंक पर देख सकते हैं
https://www.facebook.com/AIDWA/videos/445923593087276
का सुशीला गोपालन का कैंसर के कारण 19 दिसंबर, 2001 को दुखद निधन हुआ था। केरला की वामपंथी और जनवादी आंदोलन की वह बड़ी नेता थी, एडवा की संस्थापकों मे से एक थीं और हमारी महामंत्री भी थीं। हर साल, 19 दिसंबर को उनकी याद मे संगठन की ओर से किसी विचारक का भाषण करवाया जाता है। अबकी साल, इस भाषण से हमारे फेस बुक लाइव कार्यक्रम की शुरुआत हुई थी। कृषि-अर्थशास्त्री मधुरा स्वामीनाथन, जो हमारे संगठन की सदस्य भी हैं, ने उस दिन महिला किसानों के बारे मे बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी भरा भाषण दिया थाजिसे आप नीचे दिए हुए लिंक पर देख सकते हैं। भाषण अंग्रेजी मे है।
https://www.facebook.com/AIDWA/videos/3440863266009359
एडवा द्वारा अपनी जाँबाज नेताओं के बारे मे प्रकाशित पुस्तक ‘बाधाएँ तोड़ते हुए’ मे का सुशीला गोपालन के बारे मे बड़ा ही प्रेरणादायक लेख है। उसके कुछ अंश नीचे दिये गए हैं:
‘यह उनका जनता मे पहला भाषण था, और 13 वर्षीय सुशीला थोड़ा नर्वस थी। उन्होने भीड़ मे अपने परिचित चेहरो की तालाश की...उनका उत्साह वर्धन करते और मुसकुराते हुए क्वायर (नारियल का जूट) कामगार यूनियन के उनके कामरेड और मित्र वहाँ थे जिनको उन्होने देखा था जब वह छोटी थी, असंख्य महिलाए और पुरुष थे जो उनके घर के पास बड़े क्वायर कारखाने मे काम करते थे। उन्होने याद किया कि भाषण उनके लिए लिखा गया था और रोशनी मे होने के कारण बिलकुल सामने देख रही थी। उन्होने बोलना शुरू किया और संतोषयुक्त मुसकुराहटें उन चेहरो पर आ गई जिन्होने सुशीला का भाषण सुना। बहुत प्रशंसा के साथ उन लोगों ने कहा “आज यहाँ वह वक्ता है, लेकिन एक दिन वह यूनियन की नेता होगी...”।
यह 1940 के दशक की शुरुआत थी, 50 वर्षो मे सुशीला गोपालन देश मे वामपंथी आंदोलन की नेतृत्वकारी हस्ती बन गई और अपने गृह राज्य केरला मे एक जाना पहचाना नाम...
सुशीला 19 वर्ष की उम्र मे कम्युनिस्ट पार्टी मे 1949 मे शामिल हुई, ए के गोपालन जिन्हे लोग आदर और प्यार से ए के जी कहते थे, के साथ शादी से तीन साल पहले...उनके अपने संघर्षो मे, अपनी बहुत सी भूमिकाओं मे सुशीला ने भारत मे नारी मुक्ति के लिए आंदोलन खड़ा करने का प्रयास किया। वह केरला महिला फेडरेशन के पहले सम्मेलन मे उपस्थित थी। 1981 मे वह एडवा की संस्थापक सदस्य थी।
संस्थापक महामंत्री की हैसियत से महिलाओं के विभिन्न वर्गों से संबन्धित मुद्दों की श्रंखला को केंद्र मे लाने का कारण बनी। घरेलू हिंसा, दहेज हत्या, लैंगिक हमले और बलात्कार के मुद्दे एडवा द्वारा सुशीला के नेतृत्व मे उठाए गए। वह एक ऐसा संगठन बनाना चाहती थी जिसे सभी महिलाएं अपना संगठन कहे। भाषा उनके लिए कभी बाधा नहीं रही और उन्होने शुरू के वर्षो मे संगठन को खड़ा करने के लिए बहुत यात्राएं की। महिला आंदोलन मे विभिन्न स्तरो पर काडर निमार्ण मे उन्होने विशेष ध्यान दिया।‘
(एडवा द्वारा प्रकाशित, ‘बाधाएँ तोड़ते हुए’ से)
यह अंक आपको नए साल मे मिलेगा। यह साल देशवासियों के लिए कुछ खुशियाँ लाये, उनको अनगिनत परेशानियों से कुछ राहत दे, किसानों को जबरदस्त जीत मिले जिससे पूरा देश जीतेगा। हमारे संघर्षों और संगठन को और ताकत और ऊर्जा मिले - यही हम सब की कामनाए हैं
सुभाषिनी अली, संपादक