सम्पादकीय
इस अंक के संपादकीय मे सिर्फ भाजपा और संघ परिवार के घिनौने चेहरे के पर्दाफाश करने की कोशिश ही की जा सकती है। उसकी हिंसात्मक हरकतें, उसके नफरत फैलाने की गतिविधियां, उसकी प्रजातन्त्र का गला घोटने के प्रयास, उसकी महिला-विरोधी और दलित-विरोधी मानसिकता और अल्प-संख्यकों के प्रति उसके घृणा, इन सबकी अनेकों उदाहरण हमारे सामने पिछले कई वर्षों से हम सबके सामने हैं। लेकिन, पिछले दिनों मे उत्तर प्रदेश और असम मे हमें जो देखने को मिला, वह तो उसकी अमानवीय हैवानियत और रक्त पिपासा के डरावने प्रमाण हैं।
3 अक्तूबर को – गांधी जयंती के बस एक दिन के बाद – लखीमपुर खेरी मे, दिन दहाड़े, पूरी दुनिया को साक्षी बनाते हुए, भाजपा के केंद्रीय नेता, राज ग्रह मंत्री, अजय कुमार मिश्रा ‘टेनी’ के पुत्र, आशीष मिश्रा ‘मोनु’, ने एक नया हथियार ईजाद कर डाला। उन्होने अपनी जीप को प्रदर्शन से लौट रहे शांतिपूर्ण किसानों के ऊपर चढ़ाकर, चार किसानों की हत्या कर डाली और न जाने कितनों को घायल कर दिया। वहीं खड़े एक स्थानीय पत्रकार, रमन कश्यप, भी वहीं मारे गए। मोनु के वाहन और उनके साथ आए लोगों मे तीन और लोग मारे गए।
मोनु के पिता टेनी क्षेत्र के सांसद हैं जो हाल मे ही उत्तर प्रदेश मे चुनाव से पहले ब्राह्मणों को लुभाने के लिए केंद्रीय गृह राज मंत्री बनाए गए हैं, ने कुछ दिन पहले अपने क्षेत्र मे प्रदर्शन कर रहे किसानों से कह डाला था की उनको वह कुछ मिनटों मे ही ठीक करना जानते हैं। इसकी प्रतिकृया किसानों की ओर से तब हुई जब 3 अक्तूबर को उनके पैतृक गाँव मे होने वाले वार्षिक दंगल के मौके पर अतिथि के रूप मे पधारने वाले उ प्र के उप मुख्य मंत्री, मौर्य, के हेलीकाप्टर को उतरने से उन्होने सफलतापूर्वक रोक दिया। इसके बाद वे लौट रहे थे जब टेनी पुत्र ने अपनी जीप द्वारा उन पर खूनी हमला कर डाला।
इस घटना के खिलाफ, देश भर मे तेज़ प्रतिरोध हुआ लेकिन कई दिनों तक मोनू को स्थानीय पुलिस बचाती रही। यह तो उत्तर प्रदेश का अब जाना माना रवैया ही बन गया है। एक तरफ शक के आधार पर अल्पसंख्यकों और दलितों को पुलिस की गोली का निशाना बड़ी आसानी से बना दिया जाता है और दूसरी ओर, भाजपा के करीबियों को जो जघन्य अपराधों मे लिप्त पाये जाते हैं, उन्हे बचाने मे पूरी ताकत लगा दी जाती है। किसानों के तीव्र विरोध के सामने, उ प्र के प्रशासन को भी झुकना पड़ा और मोनु जेल भेज दिये गए लेकिन उनके पिता को इस बात के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया गया है की वे अपने पद का इस्तेमाल अपने बेटे को बचाने के लिए करें।
लखीमपर खीरी के वह दृश्य : खून से लथ-पथ किसानों की लाशें, किसी भयानक जानवर जैसे उन पर चढ़ रही वह जीप, उनके घर की रोती-बिलखती महिलाएं और किसानो और आम लोगो का उबलता आक्रोश, यह सब हमारे मस्तिष्क पर गुदे हुए हैं, मिटेंगे नहीं।
असम मे हुई भाजपाई बर्बरता की तस्वीरें तो और भी ज़्यादा मार्मिक और परेशान करने वाली हैं। राज्य की भाजपा सरकार, विधान सभा चुनाव जीतने के बाद, अल्पसंख्यकों के विरुद्ध आग उगलने मे लगी है। उन्हे ‘घुसपैठिया’ करार देकर, उन्हे जानवरों की तरह इधर से उधर हाँकने का अभियान उसने शुरू कर दिया है। 23 सितंबर को, दरंग ज़िले के गोरुखूटी गाँव मे वहाँ पर दशकों से बसे, खेती करने वाले मुस्लिम परिवारों पर पुलिस-प्रशासन ने हल्ला बोल दिया और उन्हे ज़बरदस्ती वहाँ से खदेड़ने की कोशिश की। जब किसानों ने विरोध किया, तो पुलिस ने गोली चला दी और एक युवक और एक बच्चा वहीं मर गए। बेरहमी की इंतेहा तो तब देखने को मिली जब सरकारी फोटोग्राफर ने गोली खाये युवक के शरीर पर कूदना शुरू कर दिया, उसको लातों से मारा और उसकी गर्दन को अपने जूतों तले रौंदा।
स्तब्ध कर देने वाली इन तसवीरों को देखकर भी बहुतों के दिल नहीं पसीजे। यह है संघ परिवार के ध्रुवीकरण के अभियान का नतीजा। उसने देशवासियों के बड़े हिस्से को अपनी तरह अमानवीय बनाने मे काफी हद तक सफलता हासिल कर ली है। असम और देश के तमाम लोग जानते हैं, की दरंग मे खेती करने वाले भारत के नागरिक हैं, उन्हे वहाँ रहने का संवैधानिक अधिकार है लेकिन फिर भी वे चुप्पी साधे हुए हैं।
अपने आंदोलन को ज़िंदा रखने के लिए, हमे संघ परिवार के ध्रुवीकरण के खूनी अभियान को समझना होगा। अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरत पैदा करके, उनकी तमाम संघर्ष करने वाले मजदूर-किसानों पर आक्रमण करने की क्षमता बढ़ती है। दरंग की घटनाओं पर हमारी चुप्पी, लखीमपुर खीरी की हिंसा करने की हिम्मत संघ परिवार के सदस्यों मे पैदा करती है।
यह सराहनीय है की दरंग और लखीमपुर खीरी हमारी असम, बंगाल और उत्तर प्रदेश की एडवा की बहने पहुंची। उन्होने पीड़ित परिवारों के साथ अपने आपको जोड़ा और हमारे संगठन ने पूरे देश की महिलाओं के बीच संघ परिवार के असली एजेंडे का प्रचार करने का बीड़ा उठाया है। यही हमारे अपने संघर्ष की धार को ज़ंग खाने से बचाने का रास्ता है।
सुभाषिणी अली