संपादकीय
पिछले हफ्तों की घटनाओं ने भारत की न्यायपालिका की कार्यप्रणाली पर बड़े सवाल खड़े कर दिये हैं। जून 24 को सर्वोच्च न्यायालय ने जाकिया जाफरी, जिनके पति, एहसान जाफरी, कांग्रेस के पूर्व सांसद, को गुजरात दंगों के दौरान 60 से अधिक लोगों के साथ जिंदा जला दिया गया था, की न्याय की गुहार को खारिज कर दिया। जाकिया जाफरी, 2002 से लगातार न्याय की लड़ाई लड़ रही हैं। उनका आरोप रहा है की गुजरात के उस समय के मुख्य मंत्री, नरेंद्र मोदी, ने जान बूझकर एहसान जाफरी और उनके पड़ोसियों पर दंगाइयों द्वारा किए जा रहे हमले मे किसी तरह का हस्तक्षेप करने से इंकार किया। एहसान जाफरी ने कई बार उनसे फोन पर संपर्क करने का प्रयास किया लेकिन उन्होने उनकी एक न सुनी। अंत में, एहसान जाफरी और उनके कई पडोसियों को जिंदा जला दिया गया। इस बार्बर कांड के मुख्य आरोपी, गुजरात की मंत्री माया कोदनानी और बाबू बजरंगी कुछ साल जेल मे रहने के बाद, जमानत पर छोड़ दिये गए थे।
जाकिया जाफरी हर स्तर पर न्याय की लड़ाई लड़ती रही हैं। उनका आरोप है की उनके पति और अन्य लोगों की हत्या के लिए नरेंद्र मोदी ही जिम्मेदार हैं। उनकी इस लड़ाई मे उनका साथ तीस्ता सीतलवाद दे रही थी। हमारे देश के मानव अधिकारों की रक्षा की लड़ाई मे तीस्ता का ही नाम सबसे ऊंचे पद पर है। उन्होने 1990 मे मुंबई मे हुए दंगों मे दंगा पीड़ितों के पक्ष मे जबरदस्त लड़ाई लड़ी और गुजरात दंगों के पीड़ितों के संघर्ष मे उनका योगदान अनोखा रहा है। उनके हस्तक्षेप ने कई लोगों को न्याय भी दिलाया है। नतीजे के तौर पर, तीस्ता नरेंद्र मोदी और अमित शाह जैसों की आँख की किरकिरी बन गईं। उसके खिलाफ तमाम मुकद्दमे दर्ज किए गए। उस पर भ्रष्टाचार और धोखाधड़ी का आरोप लगाया गया लेकिन उसको न्यायपालिका ने निर्दोष ही ठहराया।
24 जून को उसी सर्वोच्च न्यायालय ने जाकिया जाफरी की अपील को पूरी तरह से खारिज कर दिया। उसने एसआईटी के बयान पर किसी तरह के सवाल-जवाब किए बगैर, उसे पूरी तरह से सही माना। यही नहीं, न्यायाधीशों ने न्याय के लिए लड़ने वालों पर तीखी टिप्पणियाँ की, उन्हे साजिश का हिस्सा ठहराया और, चंद शब्दों मे, उन्हे दंडित करने की बात भी की। यह अपने आप मे बिलकुल ही उचित नहीं है। न्याय मांगना और न्याय के लिए लड़ना हमारा मूलभूत अधिकार है। अगर उसे छीन लिया जाता है तो संविधान और कानून के संरक्षण से तमाम नागरिक वंचित हो जाएँगे। वैसे भी हमारे देश मे गरीब और आम लोगों के लिए न्याय का हासिल करना बहुत मुश्किल काम है। अगर इसकी तलाश पर नियंत्रण लगा दिया जाएगा तो फिर यह असंभव हो जाएगा।
25 तारीख को, सुबह-सुबह, गुजरात की पुलिस ने तीस्ता को उसके मुंबई-स्थित निवास से गिरफ्तार कर लिया। कमाल की तत्परता दिखाई गई। 24 की शाम को ही सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आया और 25 की सुबह तक सारी कार्यवाहियाँ करके, गुजरात की पुलिस मुंबई पहुँच गयी। तीस्ता के साथ हाथा-पाई भी हुई और उसे अहमदाबाद लाकर जेल भेज दिया गया। उसके साथ पूर्व गुजरात के पूर्व डी जी पी, श्रीकुमार, और पूर्व डीजीपी संजीव भट्ट को भी आरोपी बनाया गया है। भट्ट तो पहले से ही जेल मे हैं, अब श्रीकुमार भी गिरफ्तार कर लिए गए हैं।
न्यायपालिका के न्याय के बारे मे क्या कहा जाये? बाबू बजरंगी और माया कोदनानी जिनके हाथ खून से रंगे हैं, जिनको न्यायालय ने दंगे मे शामिल होने का दोषी माना है, वे आजाद घूम रहे हैं और बहादुर लड़ने वाली तीस्ता जेल के अंदर है!
यही नहीं झूठी खबरों का पर्दाफाश करने वाले मोहम्म्द जुबैर को भी इसके बाद गिरफ्तार कर लिया गया है। उनके खिलाफ उनके 2018 की ट्वीट को लेकर आरोप लगाया गया की उन्होने हिंदुओं की भावनाओं को ठेस पहुंचाया है। दरअसल, जुबैर ने 1987 मे ऋषिकेश मुखर्जी द्वारा बनाई फिल्म के एक ‘क्लिप’ को शेर किया था जिसमे ‘हनीमून होटल’ का नाम ‘हनुमान होटल’ मे बदल गया। इस बेबुनियाद आरोप के आधार पर उन्हे जेल भेज दिया गया है। याद करने की बात है की जुबैर ने नूपर शर्मा के आपत्तीजनक टिप्पणी को साझा किया था और वह लगातार संघियों की झूठी बातों का भी खुलासा करते रहे हैं। इसलिए वह जेल मे हैं जबकि नूपुर शर्मा अब भी आजाद घूम रही हैं। उनके खिलाफ पिछले हफ्ते सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने जबरदस्त बातें की लेकिन वह बस बातें ही रेह गईं।
देश भर और विदेशों मे भी इन दोनों गिरफ्तारियों की जबरदस्त आलोचना हुई है लेकिन हमारी सरकार की तरफ से किसी प्रकार का कोई स्पष्टीकरण नहीं पेश किया गया है। बल्कि उसने संविधान की समाप्ती की ओर एक बड़ा कदम आगे बढ़ाने का काम किया है।
एडवा की तमाम इकाइयों ने तीस्ता के साथ हुई ज्यादती के खिलाफ आवाज उठाई, प्रदर्शन किया और जुलूस निकाले। तीस्ता का हमारे संगठन के साथ बहुत करीबी रिश्ते हैं। हमने हमेशा उसके काम को सराहा है और उसके सहयोग मे जूटे हैं। आज भी हम उसके साथ खड़े हैं।
हमारा देश आज काले बादलों से घिरा है। हमारे तमाम अधिकार हमसे छिनते जा रहे हैं। हम चुप नहीं बैठेंगे। हमे आगे बढ़कर इन चुनौतियों को स्वीकार करना होगा।
सुभाषिनी अली (राष्ट्रीय उपाध्यक्ष, एडवा)